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कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, राधास्वामी पंथ जोड़ा

राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल जी माने जाते हैं। इन्हें ही 'राधास्वामी' कहा जाता है, क्योंकि 'राधा' श्री शिवदयाल जी की पत्नी को कहा जाता था( प्रमाण: "उपदेश राधास्वामी" प्रकाशक- एस. एल. सोंधी सेक्रेटरी राधास्वामी सत्संग, ब्यास, जिला अमृतसर(पंजाब) के पृष्ठ 30-31 पर)। इस पंथ की भक्ति मर्यादा शुरू में ही भंग हो चुकी थी, क्योंकि श्री शिवदयाल जी के कोई गुरु नहीं थे (प्रमाण: "जीवन चरित्र हज़ूर स्वामी जी महाराज" लेखक प्रताप सिंह जी के पृष्ठ 19 पर)। कबीर परमात्मा जी कहते हैं,

गुर बिन काहु न पाया ज्ञाना। ज्यों थोथा भुस छड़े मूढ किसाना।।
गुरू बिन प्रेत जन्म सब पावे। वर्ष सहंस्र गर्भ सो रहावे।।

स्वयं इस पंथ के श्रद्धालु भी इस सिद्धांत को मानते हैं कि वक्त गुरू बिना जीव मुक्ति संभव नहीं। गुरू की शरण प्राप्त न होने के कारण श्री शिवदयाल जी को मृत्यु उपरांत भूत योनी प्राप्त हुई। मृत्यु उपरांत वे अपनी परम शिष्या बुक्की जी में प्रेतवत प्रवेश करके हुक्का पीने लगे। (प्रमाण: "जीवन चरित्र हज़ूर स्वामी जी महाराज" पृष्ठ 54, 55, 56) आदरणीय गरीबदास जी महाराज जी भी कहते हैं,

सतगुरू पुरूष कबीर हैं, चारों युग परवान।
झूठे गुरूवा मर गए, हो गए भूत मसान।।

पाठकजन विचार करें, जो स्वयं भूत बना उसका नाम जाप करने से आपको सतलोक प्राप्ति कैसे हो सकती है? प्रथम तो श्री शिवदयाल जी का ही कोई गुरू नहीं, इस कारण मृत्यु उपरांत भूत बने, फिर जिन पांच नामों का जाप श्री शिवदयाल जी करते थे (जो आज तक राधास्वामी ब्यास पंथ में दीक्षा दी जाती है) उन पांचों नामों के विषय में श्री तुलसीदास, हाथरस ने घट रामायण, पहला भाग, पृष्ठ 27 पर लिखा है कि,

पांचों नाम काल के जानो। तब दानी मन संका आनो।।

अर्थात जिन पांच नामों का राधास्वामी पंथ में जाप दिया जाता है वे पांचों नाम काल के हैं। श्री तुलसीदास, हाथरस वाले श्री शिवदयाल जी के माता-पिता के गुरू थे, श्री शिवदयाल जी की जीवनी में लिखा है कि उन्होंने तुलसीदास, हाथरस वाले की काफी संगति की थी तथा घर में श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का पाठ होता था, वहीं से श्री शिवदयाल जी ने पांचों नाम मनमुखी छांटकर हठयोग करके जाप करना शुरू कर दिया।

सिर्फ इतना ही नहीं, राधास्वामी के ज़्यादातर पंथ ब्यास डेरे से चले हैं। ब्यास डेरे की स्थापना श्री जयमल सिंह जी ने सन् 1889 में ब्यास नदी के किनारे की थी तथा श्री शिवदयाल जी की मृत्यु सन् 1878 में हुई थी। अर्थात श्री जयमल सिंह जी को नाम देने का कोई आदेश श्री शिवदयाल जी ने नहीं दिया। यदि आदेश दिया होता तो जयमल सिंह जी 11 साल बाद डेरा स्थापित न करते, बल्कि श्री शिवदयाल जी के आदेश देने के तुरंत बाद नामोपदेश देने लग जाते।

इस पंथ का ज्ञान भी पूर्णतः निराधार और बच्चखाना है। ये सतपुरूष को निराकार बताते हैं, फिर कहते हैं कि सतपुरूष के एक रोम कूप की शोभा करोड़ों सूर्यों से भी अधिक है, कहीं सतपुरूष को धर्म भी कहा है(संतमत प्रकाश भाग-4 पृष्ठ 262)। कहीं तो ये सतनाम को स्थान बताते हैं(सारवचन वार्तिक, पृष्ठ 1), कहीं मंज़िल(सारवचन वार्तिक, पृष्ठ 2), कहीं जाति(संतमत प्रकाश भाग-4 पृष्ठ 262), कहीं सतपुरूष, सच्चखंड, सारनाम, सारशब्द, सतनाम सब एक ही कहा है(सारवचन वार्तिक पृष्ठ 3) तथा फिर ये नाम जाप करने को भी पांच नामों में एक नाम 'सतनाम' देते हैं।

संतमत प्रकाश भाग-4 पृष्ठ 261 पर गुरू नानक साहिब जी की तथा कबीर साहिब जी की वाणियां लिखी हैं:

सोई गुरू पूरा कहावे। जो दो अखर का भेद बतावे।।

कह कबीर अखर दोई भाख। होएगा खसम ते लेगा राख।।

अर्थात सच्चा गुरू की पहचान है कि वो दो अखर का भेद बताता है, तथा कबीर परमात्मा कहते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के वो दो अखर बोलो(भाख), यदि आप सच्चे संत से दीक्षित होंगे तो परमात्मा आपकी रक्षा करेंगे(राख)। तथा ये राधास्वामी के गुरूजन कहते हैं कि वे अखर आपके अंदर हैं और पारब्रह्म में जाकर मिलेंगे।

मुझे हैरानी है कि ऐसे अज्ञान पर आधारित बेबुनियादी पंथ से भी करोड़ों पढ़े-लिखे श्रद्धालु दीक्षित हैं। ये केवल आध्यात्मिक ज्ञान के टोटे का ही नतीजा है। आप सभी से कर जोड़कर निवेदन है कृप्या इस पंथ से स्वयं निकलें तथा अन्य भी अपने भाई, बहनों को इन समाज-विनाशकों से बचाएं। कृप्या अपने सभी राधास्वामी पंथ से दीक्षित परिचितों तक ये पोस्ट पहुंचाकर ये जागरूकता फैलाने में सहयोग करें।

नोट: चेले टूटने के डर से राधास्वामी पंथ के श्रद्धालुओं को विशेष हिदायत दी गयी है कि वे इस सच्चे ज्ञान भरी पोस्ट, पुस्तक और सतसंगों की न सुनें। यदि कोई भाई, बहन ये ज्ञान सुनने में आनाकानी करे तो कृप्या उन्हें समझाएं कि ये ज्ञान उनकी ही पुस्तकों से है।

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